जिंदगी की शाम चली आई है।
इक दिन नाम जिसका जुदाई है।।
मौत इक नाम ही सच्चाई है।
इसी बात को दुनिया दुहराई है।।
हर कोशिश के बाद राह निकल आई है।
यहां कौन बाप,कौन बेटा,कौन भाई है।।
अपनी जिंदगी में तो बस केवल तन्हाई है।
सबने उससे मिलने की कसम खाई है।।
जिसने देखे हैं,मीठे सपने अपने।
कब,किसके पूरे हुए ये सपने।।
आंख भर आई,बदन लगा तपने।
फिर भी हिम्मत कर,मंजिल बनाई हमने।।
रेत की ढेरी को महल समझा सबने।
समय की इक लहर ने तोड़े सपने।।
हमसफर कोई ना रहा,साथ छोड़ा सबने।
संकट झेला हमने,उम्मीद थी पूरे होंगे सपने।।
रात को रात,दिन को समझा दिन नहीं।
सपने अपने थे,सोचा मंजिल होगी यहीं।।
जहां दिन बीता,बीत गई रात वहीं।
सपने देखे थे,सोचा था होंगे यहीं कहीं।।
वक्त गुजरता रहा,शामें ढलतीं रहीं।
जिंदगी की गाड़ी,यूं ही घिसटती रही।।
सुख—दुख की पटरी पर,वो चलती रही।
सपनों को अपना मानना,ये गलती रही।।
पल—दो पल की थी रौशनी।
रात ही केवल अपनी रही।।
इतनी बढ़ी दुनिया,कोई अपना नहीं।
बड़े—बुजुर्ग कहते थे बातें सही।
बाजुओं पर यकीं कर,हौसलों में रख दम।
मंजिल मिलकर रहेगी,दुख हो जाएंगे कम।।
दूर होंगे सारे गम,आंखें होंगी नम।
सपने होंगे तेरे पूरे,खुशियां होंगी हरदम।।
खुश रहने वालों की शामें हसीं होती।
उल्लासित मन जागता,दुनिया सोती।।
जिंदगी में हार—जीत,होती नहीं पनौती।
खुशियां किसी एक की,होती नहीं बपौती।।
कर्ज का दुनिया में रैन बसेरा।
शरीर छूटेगा,ना रहेगा तेरा—मेरा।।
खाक होगा तन,श्मासान में उड़ेगी राख।
कुछ दिन गम,फिर रोएगी ना आंख।।
वहीं है मंजिल,तेरे इस विशाल तन का।
वक्त रहते जप ले तू,राम नाम का मनका।।
ऐसा ना किया तो न घर होगा ना घाट का।
जिंदगी की शाम है,इसे बना मनभावन सा।।
—अनीश कुमार उपाध्याय