सोमवार, 28 अप्रैल 2014

शाम—ए—जिंदगी













जिंदगी की शाम चली आई है।
इक दिन नाम जिसका जुदाई है।।
मौत इक नाम ही सच्चाई है।
इसी बात को दुनिया दुहराई है।।

हर कोशिश के बाद राह निकल आई है।
यहां कौन बाप,कौन बेटा,कौन भाई है।।
अपनी जिंदगी में तो बस केवल तन्हाई है।
सबने उससे मिलने की कसम खाई है।।

जिसने देखे हैं,मीठे सपने अपने।
कब,किसके पूरे हुए ये सपने।।
आंख भर आई,बदन लगा तपने।
फिर भी हिम्मत कर,मंजिल बनाई हमने।।

रेत की ढेरी को महल समझा सबने।
समय की इक लहर ने तोड़े सपने।।
हमसफर कोई ना रहा,साथ छोड़ा सबने।
संकट झेला हमने,उम्मीद थी पूरे होंगे सपने।।

रात को रात,दिन को समझा दिन नहीं।
सपने अपने थे,सोचा मंजिल होगी यहीं।।
जहां दिन बीता,बीत गई रात वहीं।
सपने देखे थे,सोचा था होंगे यहीं कहीं।।

वक्त गुजरता रहा,शामें ढलतीं रहीं।
जिंदगी की गाड़ी,यूं ही घिसटती रही।।
सुख—दुख की पटरी पर,वो चलती रही।
सपनों को अपना मानना,ये गलती रही।।

पल—दो पल की थी रौशनी।
रात ही केवल अपनी रही।।
इतनी बढ़ी दुनिया,कोई अपना नहीं।
बड़े—बुजुर्ग कहते थे बातें सही।

बाजुओं पर यकीं कर,हौसलों में रख दम।
मंजिल मिलकर रहेगी,दुख हो जाएंगे कम।।
दूर होंगे सारे गम,आंखें होंगी नम।
सपने होंगे तेरे पूरे,खुशियां होंगी हरदम।।

खुश रहने वालों की शामें हसीं होती।
उल्लासित मन जागता,दुनिया सोती।।
जिंदगी में हार—जीत,होती नहीं पनौती।
खुशियां किसी एक की,होती नहीं बपौती।।

कर्ज का दुनिया में रैन बसेरा।
शरीर छूटेगा,ना रहेगा तेरा—मेरा।।
खाक होगा तन,श्मासान में उड़ेगी राख।
कुछ दिन गम,फिर रोएगी ना आंख।।

वहीं है मंजिल,तेरे इस विशाल तन का।
वक्त रहते जप ले तू,राम नाम का मनका।।
ऐसा ना किया तो न घर होगा ना घाट का।
जिंदगी की शाम है,इसे बना मनभावन सा।।

—अनीश कुमार उपाध्याय

मन की जीत











जिंदगी का ऐ मन ऐतबार कर।
बड़ी हसीं है ये दुनिया,ना इंकार कर।।
कोई जंग जीती नहीं जाती,हार मानकर।
फिर शुरू कर कोशिश,जीत जानकर।।

पा लेगा तू मंजिल,ये ऐतबार कर।
छोड़ दोगे ये दुनिया,मान ले अगर।।
दिल में होगा गम,आंसू बहेंगे झर—झर।
उलझन है तो हल भी होगा,तू यकीं कर।।

हौसलों के दम पर,दुनिया जाती जीती।
बिना दिल में डरके,होती नहीं प्रीती।।
यही बात बतलाती,दुनिया की नीति।
जीते के साथ रहने की,रही सदा रीति।।

सारे फसाने छोड़कर,हकीकत पर यकीं कर।
मिल जाएगी मंजिल,कोशिश जो करे अगर।।
वो जिंदगी ही क्या,​जो जिये मर—मर।
पाओगे जो मंजिल,हो जाओगे अमर।।

राह की बाधाओं को,अब तू पार कर।
मुसीबत जो लाख आए,चलता जा निडर।।
आंधी—तूफान भी,हट जाएंगे घबराकर।
जीत मिलेगी तुझको,तू इसका यकीं कर।।

डर—डरकर किसी को ​जीत नहीं मिलती।
वक्त से पहले कभी कली नहीं खिलती।।
उगते सूरज की किरणे,अंधेरे को चीरती।
लाख मुसीबत बाद ही मंजिल है मिलती।।

मन के हारे हार है,मन के जीते जीत।
यही सदा रही है,चारो युग की रीत।।
दुनिया के सारे कवियों ने गाए यही गीत।
अब उसको बिसरा,कहानी गई वो बीत।।

जीते के पीछे दुनिया,हारे का सहारा कोई नहीं।
अपने दम पर खड़ा हो जा,जीत मिलेगी कहीं ना कहीं।।
हर हार की वजहों का,तैयार कर खाता—बही।
दांतों में जहर रखकर,छिपकर बैठा रहता अहि।।

वक्त का इंतजार कर,तू लौटेगा जीतकर।
मन को तू मजबूत और इरादे फौलाद कर।।
हिम्मत अबकी फिर बांध,सांसों को खींचकर।
कोई तुझे हरा नहीं सकता,लौटेगा तू जीतकर।।

मंजिल पाने की मन में तू जिद कर।
कदम—कदम बढ़ाता जा,चलता जा राह पर।।
लक्ष्य पाने के लिए,योगी घूमे नगर—नगर।
फिर तू कैसे लौट सकता,भला निराश होकर।।

जीत मिलती उसी को,जिसके सपनों में जान होती।
मुर्दों की क्या भला कहीं पहचान होती।।
बागों में फूल खिलने से पहले,कलियां हैं होती।
मर्द ही आंसू पीते हैं,औरतें हैं रोतीं।।

—अनीश कुमार उपाध्याय

मतवाली टोली












चल पड़ी मतवालों की टोली।
अब चले तोप,चाहें चले गोली।।
रंग जाए,चाहें खून से चोली।
खेलेंगे अब खून की होली।।

बहुत कर लिया हमने प्यार।
अब ना सहेंगे तेरी ललकार।।
हमने दिए फूल,तूने दिया अंगार।
एक के बदले,अब मारेंगे चार।।

पड़ोसी धर्म भी खूब निभाया।
शांति—सद्भाव तुझे ना भाया।।
सीमा पार तू चढ़कर आया।
काश्मीर को अपना बताया।।

देश में तूने आतंकवाद फैलाया।
अपनों को ही दुश्मन बनाया।।
भाई—भाई को खूब लड़वाया।
हिंदू—मुस्लिम को भिड़ाया।।

निर्दोषों का लहू बहाया।
धर्मस्थल पर आग लगवाया।।
अपनों को बम से उड़ाया।
तब तुझे मुस्लिम नजर ना आया।।

अब मुस्लिम को बताए भाई।
मारे अपनों को केवल कसाई।।
अब जान लो तुम सच्चाई।
नई एकता भारत में आई।।

अब मतवाले तुझे बताएं।
बूंद—बूंद लहू की कीमत चुकाएं।।
देश की एकता उनको भाए।
रक्षा देश की करने आए।।

हिंदू आए,मुस्लिम आए।
सिख—ईसाई वो भी आए।।
भारत के हैं,पाक ना भाए।
देश की एकता की गाथा गाएं।।

देश निराला,सैनिक मतवाला।
जाति—धर्म से दूर रहने वाला।।
कोई गोरा,तो कोई है काला।
भारतभूमि का है रखवाला।।

शीश काट तेरा वो लाएगा।
भारत मां का कर्ज चुकाएगा।।
तुझसे अपना बदला पाएगा।
भारत मां के गीत को गाएगा।।

भारत देश की अजब कहानी।
बूढ़ों में भी आती जवानी।।
वीर कुंवर सिंह थे अभिमानी।
उनकी कहानी,नहीं तुझे बतानी।।

—अनीश कुमार उपाध्याय

बागी धरती













बागी धरती करे पुकार।
नहीं सहेंगे अब भ्रष्टाचार।।
बहुत सह चुके तेरा अत्याचार।
अब होगा आर या होगा पार।।

बागी धरती दिखाएगी तेवर।
सोना छोड़ हथियार बनेंगे जेवर।।
खून खौलेगा,फड़केगा बाजू।
कोई एक रहेगा, मैं या तूं।।

बागी धरती की यही पहचान।
जान रहे ना रहे,रहेगी शान।।
तिरंगे के लिए,सबकुछ कुर्बान।
गूंजेगा बस हिंदुस्तान—हिंदुस्तान।।

बागी धरती देश की शान।
मिटाये दुश्मनों के निशान।।
भारत मां के गाए गान।
चहुंओर हिंदुस्तान—हिंदुस्तान।।

बागी धरती,खूनी लाल।
दुश्मनों की खींच ले खाल।।
टूट पड़े तो बन जाए काल।
समझ ना पाए दुश्मन चाल।।

बागी धरती करे कमाल।
हर घर से निकले इक लाल।।
चमकती तलवार,लेकर ढाल।
दुश्मनों पर बन जाए काल।।

बागी धरती जवान महान।
हर घर में सेना का जवान।।
देशभर में होता गुणगान।
जय हिंदुस्तान—हिंदुस्तान।।

बागी धरती धरा है पावन।
चारों वेद में भरा बखान।।
भृगु मुनि और दर्दर महान।
जितना तुम कर लो गुणगान।।

बागी धरती की पहचान।
गंगा,सरयू,टोंस सीवान।।
रक्षा करते वीर जवान।
जय हिंदुस्तान—हिंदुस्तान।।

बागी धरती ने भरी हुंकार।
मिटकर रहेगा भ्रष्टाचार।।
ईमानदारी की जय—जयकार।
जली ज्योति वो बनी अंगार।।

बागी धरती की जो राह में आया।
समझो उसने जीवन गंवाया।।
दुश्मनों का नामोंनिशां मिटाया।
बलिया बागी नाम कहलाया।।

—अनीश कुमार उपाध्याय

...तुझे मंजिल मिलेगी













जा मुसाफिर जा,तुझे मंजिल मिलेगी।
तेरे पीछे सारी दुनिया,ये जी लेगी।।
बस बहुत हुआ,अब ना कर दिल्लगी।
सूरज उगेगा,चांद निकलेगा,कली खिलेगी।।

जा मुसाफिर जा,तुझे मंजिल मिलेगी।
दुनिया इक फसाना है,तू इक सच्चाई।।
सच की राह पर चलने वालों ने मंजिल पाई।
हर धर्म ग्रंथों ने,यही बात बतलाई।।

जा मुसाफिर जा,तुझे मंजिल मिलेगी।
सच की राह में,लाख मुसीबतें आएंगी।।
तेरे हौसलों के आगे,वो शीश झुकाएंगी।
जीत होगी और दुनिया तेरे गीत गाएगी।।

जा मुसाफिर जा,तुझे मंजिल मिलेगी।
कदमों पर यकीं,हौसले फौलाद कर।।
तेरे राह में रोड़े भी मिले लाख अगर।
दिल को मजबूत,लक्ष्य पर रहे नजर।।

जा मुसाफिर जा,तुझे मंजिल मिलेगी।
हरिश्चंद्र भी सत्य की राह पर थे चले।।
खुद हुए नीलाम,पत्नी—बेटे थे बिके।
बिना कर वसूली दिए,रोहित ना जले।।

अंत में उन्हें तब मंजिल मिली।
सच की राहों में कांटे लाख होते।।
फरेब की राहें सपाट हैं होते।
लेकिन फरेबी को मंजिल नहीं मिलती।।

जा मुसाफिर जा,तुझे मंजिल मिलेगी।
सत्य का अगर तू,अंत तक पकड़े रहा दामन।।
सच कहूं कहता है मेरा ये मन।
मंजिल मिलेगी,तू भोगेगा नंदन वन।।

जा मुसाफिर जा,तुझे मंजिल मिलेगी।
बुराई करने वाले,अक्सर फलते—फूलते।।
लेकिन ये भी है हकीकत,वो मंजिल नहीं पाते।
खूब तेजी से जो भागते,बीच मंजिल से लौटते।।

जा मुसाफिर जा,तुझे मंजिल मिलेगी।
अपने हौसलों पर कर यकीन अगर।।
मंजिल को पाते हैं केवल वीर नर।
सत्य की राह पर चलने की तू कोशिश कर।

जा मुसाफिर जा,तुझे मंजिल मिलेगी।
हौसलों के बूते केवल मंजिल जाती जीती।।
तीनों युगों से चली आ रही यही रीती।
राजनीति में जैसे बिनु भय होय न प्रीति।।

जा मुसाफिर जा,तुझे मंजिल मिलेगी।
अगर तू ठान ले,तो ​तेरे दिल की कली खिलेगी।।
तू मनायेगा जीत का जश्न और दुनिया जलेगी।
तू पाएगा मंजिल,दुनिया हाथ मलेगी।।

—अनीश कुमार उपाध्याय

रविवार, 27 अप्रैल 2014

बंजारा मन...











मन बंजारा, वक्त का मारा।
तुझे पुकारे,आजा—आजा।।
मन गति,दीया की जलती बाती।
हवा का झोंका,लौ को झुकाती।।

मन बंजारा, हवा के जैसा।
तेरी गति,दीया की बाती।।
हवा वक्त का है इक झोंका।
संभल जा वरना,खाएगा धोखा।।

मन बंजारा,पानी जैसा।
दुनिया उसकी,जिसका पैसा।।
ये तन तेरा,बुलबुले जैसा।
हुआ ना किसी,तो तेरा कैसा!

मन बंजारा,आकाश जैसा।
इक चांद है,नगण्य तारों में।।
काली अमावस्या,गुल हुआ चांद।
जीवन वैसे,दिन—रात है जैसे।।

मन बंजारा,धरती जैसा।
जैसी मेहनत,काटो वैसा।।
भाई—भाई में आग लगाए।
खुशियों को सारी,ये जलाए।।

मन बंजारा,भंवरा जैसा।
फूल चूसकर,रस उड़ जाए।।
फूल बेचारा,क्या कर पाए।
फिर भी हंसकर,जीवन बिताए।

मन बंजारा,शीशे जैसा।
सामने जो आए,अक्स वैसा।।
लाख सुंदरता,तू चढ़ाए।
वक्त उसे भी मिट्टी बनाए।।

मन बंजारा,रास्ते जैसा।
उस पर राही चलता जाए।।
मंजिल आए,रास्ता छूट जाए।
यहीं मुसाफिर पूरा थक जाए।।

मन बंजारा,पेड़ जैसा।
पंथी आए,छाया पाए।।
गरीब घर का,चूल्हा जलवाए।
श्मसान में देह को राख बनाए।।

मन बंजारा,लोहे जैसा।
शत्रु वार को खुद झेल जाए।।
थोड़ा चूके तो मौत लाए।
कभी ढाल,भाला कहलाए।।

मन बंजारा, वक्त को समझे।
मन की गति,कोई समझ ना पाए।।
जो समझे वो ज्ञानी कहलाए।
भवसागर से पार हो जाए।।

—अनीश कुमार उपाध्याय

बढ़े चलो—बढ़े चलो










आज वक्त है पुकारता।
हुं—हुं कर हुंकारता।।
कर्म पथ पर बढ़े चलो तुम।
कभी बाधाओं से न हटो तुम।।

बढ़े चलो—बढ़े चलो।
वक्त की आवाज सुन चले चलो।।
कर्म पथ से डिगो नहीं।
कदम—कदम बढ़ाते चलो।।

वक्त की पुकार सुनो।
जीत की गिनती गिनो।।
बढ़े चलो—बढ़े चलो।
कर्म पथ पर बढ़े चलो।।

दुश्मनों की छाती दलो।
गीत फतह के गाते चलो।।
बढ़े चलो—बढ़े चलो।
तुम कहीं रुको नहीं।।

तुम कभी झुको नहीं।
जीतना है मंजिल तुम्हें।।
बढ़े चलो—बढ़े चलो।
शत्रुदल की छाती पर।।

चढ़े चलो—चढ़े चलो।
बढ़े चलो—बढ़े चलो।।
मुसीबतें जो राह की।
कचलते चलो,कुचलते चलो।।

दुश्मनों का सीना चीर दो।
बहुत धर लिए धीर तो।।
अब तुम उसको पीर दो।
वक्त की पुकार सुनो।।

बढ़े चलो—बढ़े चलो।
शेर की तरह दहाड़ते चलो।।
पर्वतों को कर दो खंड—खंड।
नदियों की दिशा मोड़ दो।।

चढ़े चलो—बढ़े चलो।
तुम्हें नहीं है रुकना।।
दुश्मन के आगे झुकना।
शत्रु का मान मर्दन करो।

बढ़े चलो—बढ़े चलो।
अब सीमा पार चले चलो।।
दुश्मन को भी पता चले।
अब वो फिर खता न करे।।

चढ़े चलो—बढ़े चलो।
फतह हासिल करके मानो।।
जीत तुम निश्चित जानो।
शत्रु वेधो बानो—बानो।।

—अनीश कुमार उपाध्याय

माधो ! कृष्ण ना भये दस—बीस














माधो!कृष्ण ना भये दस—बीस।
एक तुम्हारे संग जाएंगे मथुरा।।
गोकुल सूना,यमुना सूनी।
गोपियन अंखियां होंगी खूनी।।

माधो!कृष्ण ना भये दस—बीस।
इक तोहे संग मथुरा जइहें,बाकी गोपियन के ईश।।
कइसे रहियें यशोदा मइया,बिन बाल कन्हैया।
नंद बाबा जी ना सकिहें,तड़प—तड़प मरि जइहें।।

माधो!कृष्ण ना भये दस—बीस।
इक अकेले नंदलाल,जे गोपियन के ईश।।
रास रचावत,मन के भावत।
माखन—मिश्री के भोग लगावत।।

माधो!कृष्ण ना भये दस—बीस।
रथ के आगे, सोये गोपियां।।
आंखों से झर—झर बहतीं असुआं।
नैन खुले और कृष्ण समाये।।

माधो!कृष्ण ना भये दस—बीस।
कृष्ण जुदाई,मन नाही भाये।।
जैसे यम हमें लेने को आए।
रुक जाओ,नैनन कृष्ण समाए।।

माधो!कृष्ण ना भये दस—बीस।
राह रोके और रोवत गोपियां।।
कभी रथ के आगे सोवत गोपियां।
ऐसा जुल्म करो मत कोई।।

माधो!कृष्ण ना भये दस—बीस।
कृष्ण बुझावत,बलिराम समझावत।।
लाख मनावन,गोपियन लौटावन।
गोपियां भूमि परे लोटियावत।।

माधो!कृष्ण ना भये दस—बीस।
समयचक्र गति चलती जाए।।
राधा आगे खड़ी हो जाए।
कान्हा अब तो रुकि जाओ।।

माधो!कृष्ण ना भये दस—बीस।
तब माधो अब रथ से उतरे।।
राधे को समझावे बिटिया मान मेरी बात।
जेहि कारण जन्म लिया,उहां ही वो जात।।

माधो!कृष्ण ना भये दस—बीस।
कंस वध कर वो फिर आवेंगे।।
मात—पिता का कर्ज उतारेंगे।
एही बात सुनि राधे हटी।

माधो!कृष्ण ना भये दस—बीस।
रथ हांकि मथुरा चले श्रीकृष्ण ईश।।
मथुरा में अब बजी बधइयां।
आई गए अब कृष्ण—कन्हैया।।

—अनीश कुमार उपाध्याय

रोकर भी हंसना होता है...












रास्ते जो हसीं होते,इमारतों को कौन पूछता।
जिंदगी जो सपाट होती, मंजिल को कौन ढूंढता।।
जीवन की टेढ़ी—मेढ़ी राहें,हर लम्हा है टूटता।
कभी मन बाग—बाग,कभी है वो रुठता।।

जीवन की हर गली, हर मोड़ का।
अपना इक किस्सा होता है।
कभी संकरी गलियां,कभी चौड़ी सड़क मिलती है।
यही जिंदगी है मेरे दोस्त,कभी हंसती,कभी रोती है।।

जीवन की हर राह का,अपना फसाना होता है।
दिल में गम,आंखों में आंसू,फिर भी मुस्कुराना होता है।।
चोट जो लगती दिल पर, कहकहे लगाना होता है।
खुद अंधेरी राहों पर चलकर,उन्हें जगाना होता है।।

दिल पर हर तहरीर लिख,सबको बताना होता है।
अपना दिल रोये लाख मगर,उन्हें हंसाना होता है।।
दिल की हर सच्चाई पर,परदा दिखाना होता है।
खुद लहू की घूंट पीकर भी, खुशी जताना होता है।।

राह—ए—जिंदगी की, क्या बात बतलाउु तुझको।
खुद गम की राहों पर चलकर,तन तपाना होता है।।
कभी हंसते हुए रोना,कभी रोकर मुस्कुराना होता है।
सूरज की उगती लाली देख,दिन का एहसास कराना होता है।।

चांद की शीतल छाया को,रात बताना होता है।
खुद गम दुनिया का लेकर,जिंदगी हसीं जताना होता है।।
यही जीवन की हकीकत,रोकर भी मुस्कुराना होता है।
खुद पथरीली राहों पर चल, उनके लिए फूल बिछाना होता है।।

गम से चूर रहती जिंदगी,उन्हें हूर बनाना रहता है।
खुद लाख मुसीबत झेलकर,उन्हें शउर सिखाना होता है।।
मगरुर—ए—जिंदगी अपनी, वो नशे में चूर है।
हम तबाह—ए—राह पर,वो हमसे बहुत दूर हैं।।

वो सज—संवर रहे, हम धूर—धूर हैं।
मेरे दिल पे चलते खंजर,वो बने नूर हैं।।
इतने बड़े जहां में, अकेले हमहीं मजबूर हैं।
उन्हें चिंता मेरी नहीं,हम जो गम में चूर हैं।।

हम रास्ते उनके,वो मंजिल हैं हमारी।
हम बिखरे संसार में,उनकी आसमान की तैयारी।।
हम चलकर थक गए,वो बुलंदी छू रहे हैं।
वो बसंत बहार के झोंके, हम बहती लू हैं।।

उनका मौसम खुशगवार,अपना गमों का वार है।
उनके पैरों के नीचे फूल,अपनी तो तलवार है।।
मेरा दिल भी अजीब,उन पर पूरा ऐतबार है।
दिल सौ बार जख्मी हुआ,फिर भी यकीं बार—बार है।।

मिल जाए मंजिल मेरी,मुझको ये उम्मीद है।
मेरी जिंदगी में सारे मौसम,उनके लिए सब ईद है।।
हम राह—ए—संसार हैं,वो खड़ी हुई इमारत।
वो बुलंदी आसमान की, हम जमीं की परत।।

—अनीश कुमार उपाध्याय

मन गाना गाए











जागो..जागो..जागो,रात गई सूरज उग आया।
कागा बोला,कोयल बोली,मुर्गे ने भी बाग लगाया।।
जो सोया,वो खोता है, जो जागा वो पाया।
सिद्ध पुरुष और संतो ने यही बात बतलाया।।

सूरज की पहली लाली देख,जो इंसान जग जाता है।
सुख—वैभव कदमों में होता,अच्छी सेहत पाता है।।
रोग—व्याधि सब मिट जाते,लंबी आयु पाता है।
जो देर तक सोया रहता,अपना सबकुछ खोता है।।

सफल राह पर चलने को,जल्दी तुम्हें जागना होगा।
एक बार अजमाकर देखो,सारे रोग को भागना होगा।।
झूठ—फरेब से दूर रहकर,सच्चाई पथ पर चलना होगा।
नींद देखो फिर गहरी होगी,चिंता—फिकर कोई ना होगी।।

सारे काम समय पर होंगे,वहीं होगा जो तुम चाहोगे।
यही हकीकत है मेरे भाई,वहीं काटोगे,जो बोओगे।।
कर्म पथ पर आगे बढ़ो,अच्छा फल तुम पाओगे।
जो मेरी बात फिर भी ना समझे,तब तुम पछताओगे।।

जाग जाओ सूरज उग आया,आसमां पर लाली छाई।
मुरझाए कमलदल में भी,नवजीवन संचार ले आई।।
कहीं उंचे पर्वत खड़े,कहीं खूब गहरी है खाई।
देखो तो हर कोने में, सूरज ने किरणें पहुंचाई।।

सूरज उग आया, काली—काली रात गई।
कल जो हुआ उसे बिसराओ,बीती अब वो बात भई।।
नवउर्जा से नये जीवन का,अब तुम संचार करो।
बीती बातें बिसारकर,नये सिरे से विचार करो।।

किसी सफर की यात्रा, पहले कदम से होती शुरुआत।
किसी पेड़ की सृजना, सीधे नहीं होई जात।।
बीज पड़त,अंकुर फूटत, फिर उगत हैं उसमें पात।
माली सींचत, कोड़त—रोपत, तब बने वृक्ष विशाल।।

एक समय ऐसा भी आए, ग्रस जाए उसको भी काल।
कर्म पथ पर आगे तुम बढ़ो,मत पूछो कोई सवाल।।
कर्म करोगे,फल मिलेगा,इतना तुम निश्चित जानो।
बुरे कर्म का बुरा नतीजा, अच्छे का अच्छा मानो।।

जागो अब भी देर ना हुई,करो नई शुरुआत।
कर्मपथ पर आगे बढ़ने की,अब सोचो केवल बात।।
राह में जितने रोड़े आएंगे, कैसे करोगे आघात।
चक्रव्यूह रचने वालों को,कैसे दोगे तुम मात।।

दिन ढलेगा,सूरज डूबेगा,आएगी काली रात।
कर्मपथ पर बढ़ते ही रहना,कट जाएगी सारी रात।।
दिन निकलेगा,सूरज उगेगा,मन में रहे विश्वास।
चाहें खड़ा पर्वत हो जाए,चाहें उगे कटीली घास।।

जब कभी जीवन में,घनघोर अंधेरा छा जाए।
जब जीवन पथ पर,कोई बात समझ ना आए।।
समझो कि सवेरा दूर नहीं,बस केवल सूरज उग आए।
सूरज निकलेगा,दुख विसरेगा,मन तो अब गाना गाए।।

—अनीश कुमार उपाध्याय

भारत देश महान












देश का दुश्मन ललकार रहा है।
सीमा पर खड़ा फुफकार रहा है।।
देश की एकता उजाड़ रहा है।
अपनी जमीं पर झंडे गाड़ रहा है।।

अब मत सोओ,जागो—जागो।
अपनी धरा का,इंच—इंच मांगो।।
भारत माता का कर्ज उतारो।
अपने भविष्य की किस्मत संवारो।।

बहुत सो लिए, अब तो जागो।
खून बहाया, उसने अपनों का।।
उससे सारा हिसाब तुम मांगो।
अब मत सोओ,जागो—जागो।।

देश पड़ोसी,भूल गया वो।
पिछली हार को भूल गया वो।।
उसको फिर से याद दिलाओ।
बढ़ो जवानों,आगे आओ।।

जमा नहीं है,लहू तुम्हारा।
दुश्मन को ये बोध कराओ।।
उसके मान का मर्दन कर।
रणभूमि में उसे हराओ।।

जागो—जागो,अब मत सोओ।
शांति का पाठ खूब पढ़ाया।।
पड़ोसी धर्म भी खूब निभाया।
उसने सिर काट तोहफा भिजवाया।।

उसकी लंका में अब आग लगाओ।
देश की ताकत उसको बतलाओ।।
बहुत जख्म दिए, अब मत सहो।
अब तो सारे,एकजुट रहो।।

हिंदू,मुस्लिम,सिख,इसाई।
भाई—भाई हैं,बनो ना कसाई।।
उसकी फितरत केवल लड़ाई।
वापस लौटो,फिर बनो भाई।।

प्रेम,एकता और भाईचारा।
सभी धर्म आंखों का तारा।।
यही रहा है पहचान हमारा।
बोल हमारे,गान तुम्हारा।।

बजे प्रेम का इकतारा,झूमे दुनिया सारी।
बोली—भाषा अलग—अलग,संस्कृति एक हमारी।।
हर बोली की अपनी मिठास,जगह—जगह है खास।
कहीं गूंजता अल्लाह अकबर,घुलती कानों में मिठास।।

कहीं राम,ईसा,मूसा का होता है गुणगान।
कहीं कृष्ण की भक्ति से,पूजे जाते रसखान।।
सारी बातों का मोल एक,चाहें कोई होवे भगवान।
प्रेम,एकता,भाईचारे से,भारत देश बना महान।।

—अनीश कुमार उपाध्याय

चलो जवानों,जागो—जागो













चलो जवानों, जागो—जागो।
देश के दुश्मन,भागो—भागो।।
तोपों के गोले,दागो—दागो।
प्रीत बंधी है, धागो—धागो।।

चलो जवानों, जागो—जागो।
आग लगा ना कोई पाए।।
इंसानियत आगे आ जाए।
जाति—धरम पीछे छूट जाए।।

चलो जवानों, जागो—जागो।
भाई—भाई को लड़वाने का।।
उसका सारा भ्रम मिट जाए।
चाहें लाख, मुसीबत आए।।

चलो जवानों, जागो—जागो।
लक्ष्य को अपने,तुम पहचानो।।
मंजिल अपनी छूकर मानो।
विजय मिलेगी,निश्चित जानो।।

चलो जवानों, जागो—जागो।
खून की गर्मी,तन में लाओ।।
तुम अपनी मंजिल को पाओ।
देश को एकता का पाठ पढ़ाओ।।

चलो जवानों, जागो—जागो।
मंजिल मिलेगी,ये तय मानो।।
अपनी ताकत,तुम पहचानो।
एकता की शक्ति,अब तुम जानो।।

चलो जवानों, जागो—जागो।
पीठ दिखाकर, तुम मत भागो।।
रणचंडी से जीत तुम मांगो।
दुश्मन की सीमा को लांघो।।

चलो जवानों, जागो—जागो।
वीरगति जो तुम पाओगे।।
देश को इक संदेश तुम दोगे।
तुम जग में अमर तब होगे।।

चलो जवानों, जागो—जागो।
घर—परिवार का मोह त्यागो।।
रणयज्ञ में खुद को झोंको।
दौड़ो—दौड़ो,भागो—भागो।।

चलो जवानों, जागो—जागो।
मन को अपने फौलाद बनाओ।।
दिल में बदले की आग जलाओ।
तन को अपने खूब तपाओ।।

चलो जवानों, जागो—जागो।
मंजिल अपनी,तुम पाओगे।।
मन में ये उम्मीद रख जाओ।
जाओ—जाओ,जीतकर आओ।।

—अनीश कुमार उपाध्याय

शनिवार, 26 अप्रैल 2014

मिल गई मंजिल हमें















निकल पड़े थे राह में, दिल में कुछ अरमान लिए।
कुछ चाह लिए, कुछ आह लिए, मन में उछाह लिए।।
बढ़े जा रहे थे राह पर, कदम ताल मिलाते हुए।
बस दिल में इक अरमान था, हम ​मंजिल को छुएं।।

मंदिर—मस्जिद,पहाड़—मैदान,तालाब—कुएं।
सब गुजरते जा रहे थे,एक—एक करते हुए।।
कहीं पक्की इमारतें,कहीं मिट्टी के घरौंदे।
कहीं गाड़ियों का रेला,कहीं जाम—झमेला।।

कहीं हार्न की पौं—पौं,कहीं हथौड़ों की ठांय—ठांय।
कहीं घराड़ी की आवाज,कहीं बजते हुए साज।।
बढ़े जा रहे थे,चले जा रहे थे,गिने जा रहे थे।
कदम—कदम पर कदम ताल मिलाते जा रहे थे।।

चलत—चलत मोहे, बीती जो रतिया।
सोचत—सोचत माहे, याद आई वो बतिया।।
कौन घड़ी हम घर से निकले,कहां थी मतिया।
भोर भई अब, काहें याद आवे गतिया।।

भोर भई और ठौर मिली,राह में इक चौर मिली।
अन्हुआइल अंखियन को जैसे,नई जिंदगी और मिली।।
रात को जो सोईं थी कलियां,पहली किरण से खिली।
कहीं फूल थे गुलाबी,नीली,कहीं लाल,कलियां पीली।।

वो बागों की लाली,वो खुरपी चलाता माली।
वो फलों से लदी डाली,वो बच्चे बजाते ताली।।
वो पूजा की थाली, वो सूरज की लाली।
वो लगन के गीत—गाली,वो जामुन काली—काली।।

वहां कुम्हारों का चाक,सुबह जगाता काग।
कहीं कूड़े की मिट्टी औ राख,कहीं मुर्गे की बाग।।
कहीं राहों में पड़ी मिट्टी,कहीं कंकड़,कहीं गिट्टी।
कहीं पकती दिखी लिट्टी,गुम थी सिट्टी—पिट्टी।।

राहों के नजारे,हमने देखते हुए गुजारे।
बादल कारे—कारे,बरस पड़े थे सारे।।
पशुओं के आगे पड़े थे चारे,नहीं दिखते तारे।
बारिश की बूंदों से,गलती मिट्टी की दीवारें।।

चले जा रहे थे,बढ़े जा रहे थे।
मन ही मन,गाने गुनगुनाते जा रहे थे।।
एक—एक कर कदम,बढ़ाते जा रहे थे।
कभी रोते,कभी हंसते जा रहे थे।।

तभी सामने दिखी, काका की फुलवारी।
बचपन में खेलने की याद ताजा हुई सारी।।
यहां कभी लगता था बाजार,बिकती तरकारी।
इस खंभे पर जलते थे, बल्ब सरकारी।।

अब यहीं मंजिल थी हमारी,आस पूरी हुई सारी।
बरसों बाद घर जो लौटे,नैनन ने अंंसुआ ढारी।।
मिल गई मंजिल मेरी, पूरे हुए अरमान थे।
बरसों बाद मिले अपने,मिट गए सारे गिले।।
—अनीश कुमार उपाध्याय

इंतहा...इंतहा...इंतहा











इंतहा...इंतहा...इंतहा...हां...हां...इंतहा।
कभी इंतजार की, कभी कंटीली राह की।।
इंतहा...इंतहा...इंतहा...हां...हां...इंतहा।
कभी फूलों की राह की,कभी कांटो के ताज की।।
कभी राजकाज की, कभी सुर—साज की।
इंतहा...इंतहा...इंतहा...हां...हां...इंतहा।।

कभी प्या की, कभी दिल बेकरार की।
कभी मंजिल की चाह की,कभी सुगम राह की।।
इंतहा...इंतहा...इंतहा...हां...हां...इंतहा।
कभी मीठी वो बातें, कभी दुत्कारती यादें।
कभी कटती नहीं राहें, कभी बंटती नहीं चाहें।।
इंतहा...इंतहा...इंतहा...हां...हां...इंतहा।

वो फूलों सा हंसना, वो कांटों में फंसना।
वो कीचड़ में धंसना, वो यादों में बसना।।
इंतहा...इंतहा...इंतहा...हां...हां...इंतहा।
वो वक्त का गुजरना, वो मीठे पानी का झरना।।
वो रात का अंधेरा, चौंककर तेरा डरना।
इंतहा...इंतहा...इंतहा...हां...हां...इंतहा।

कभी गुस्सा, कभी झिड़की, वो यादों की खिड़की।
वो गलियों से तेरा गुजरना, दिल से आहे भरना।।
इंतहा...इंतहा...इंतहा...हां...हां...इंतहा।
कभी नाम का तेरा लेना, कभी खत का भेजना।।
कभी चुपके से गलियों में, तेरा जो मुस्कुराना।
इंतहा...इंतहा...इंतहा...हां...हां...इंतहा।

निकल पड़े राह पर, पर जाना है कहां!
जहां तेरी मंजिल मिले, बस जाना है वहां।।
इंतहा...इंतहा...इंतहा...हां...हां...इंतहा।
तेरी यादों में बसता, मेरा सारा जहां।।
क्या सुंदर सी जिंदगी थी,मत पूछो अहा।
इंतहा...इंतहा...इंतहा...हां...हां...इंतहा।

बरसों बाद आज मिले जो, तेरा बेगाना सा बनना।
बीतीं सारी यादों को, भूली—बिसरी याद कहना।।
इंतहा...इंतहा...इंतहा...हां...हां...इंतहा।
मेरी प्यार भी बातों को, अब गहना ना समझना।।
कभी आंखों में बसने की बातें कह, आंखों से दूर रहना।
इंतहा...इंतहा...इंतहा...हां...हां...इंतहा।

अब तो तुम पहुंचे जहां, कोई लौटता नहीं वहां।
हम अकेले रह गए, सूना पड़ा सारा जहां।।
इंतहा...इंतहा...इंतहा...हां...हां...इंतहा।
यहीं खत्म हुई कहानी, गुम हुई जिंदगानी।।
ना राजा बचे ना रानी, धरी रह गई जवानी।
इंतहा...इंतहा...इंतहा...हां...हां...इंतहा।।

—अनीश कुमार उपाध्याय

शुक्रवार, 25 अप्रैल 2014

ये राहें,हमको बताएं













ये मंजिल,ये राहें,ये हमको बताएं।
थकना नहीं है तुझको,चलता जा राहें।।
मंजिल मिलेगी,ये उम्मीद रखना।
लक्ष्य को पाने की,मन में जिद रखना।।
        रास्ते जटिल हैं,पथरीली हैं राहें।
        तुझको पाना है मंजिल,मुश्किल हो लाख चाहें।।
        थोड़ी सी दिक्कत से,तू क्यों घबराये।
        ये दिक्कत भी तुझको,इतना बताए।।
लक्ष्य है तुझको पाना,संकट चाहें लाख आए।
रास्ते में समुद्र हो,चाहें हिमालय खड़ा हो जाए।।
बढ़ना है तुझको, अपने लक्ष्य की ओर।
पाना है तुझको,मंजिल का हर छोर।।
       बिजली चाहें कड़के,टूट पड़े आसमान।
       आग का दरिया हो,पर मन में रखना तूफान।।
       मंजिल को पाना,बढ़ते ही जाना।
        रास्ते के कंकड़ को,चुनते तुम जाना।।
मंजिल मिलेगी,ये विश्वास रखना।
अपने हौसलों पर,पूरा यकीन रखना।।
बढ़ते ही जाना,तुम ना बिल्कुल थकना।
लक्ष्य पाने की, मन में जिद रखना।।
         लाख संकट भी तेरे,रस्ते ना रोक पाएं।
         तेरे हौसलों के आगे,आसमां शीश झुकाए।।
         आग का गहरा दरिया भी,शीतल जल बन जाए।
         तू खुद कहर बन छा जा,संकट कैसे टिक पाए।।
जैसे राहों में गलियां होती,पौधों में केवल कलियां ना होतीं।
फूलों में जैसे,कांटे हैं होते,रस्ते में वैसे कंकड़ भी होते।।
तेरी राहों को,मंजिल मिलेगी,तब जाके तेरी तपस्या पूरी होगी।
पूरा इत्मिनान रखना,संकट वाली राहों का पूरा मजा चखना।।
         बढ़ते ही जाना,तुम ना बि​ल्कुल थकना।
         मंजिल मिलेगी,पूरा यकीन रखना।।
         लक्ष्य को पाने की,मन में जिद रखना।
         गम जाएगा,खुशियां आएंगी,महकेगा तेरा अंगना।।
फिर जो खुशी का सैलाब होगा।
जो भी तब होगा,लाजवाब होगा।।
आंखों में आंसू तब भी तो होंगे।
ये खुशियों के आंसू,पर गम ना होगा।।
           मंजिल पाने की,खुशियों को कैसे?
           तब तुम बांट पाओगे ऐसे।।
           जैसे सुदामा को,कृष्ण मिले थे।
           जैसे शबरी को,राम मिले थे।।
मंजिल को पाने की,खुशियां ना पूछो।
दिल है चहकता,मन है उल्लसता।।
तब तुम पाओगे,पूरी दुनिया अपनी।
कहीं गम ना होगा,केवल खुशियां ही होंगी।।

—अनीश कुमार उपाध्याय

जिंदगी की जंग












जिंदगी की जंग में, हमने इतना जाना है।
कौन अपना,कौन पराया,बस उन्हें पहचाना है।।
वक्त ने हमपे, ऐसा सितम ढाया है।
अपनों ने रुसवा किया,गैरों ने अपनाया है।।
       जिनसे वफा की, हमें उम्मीद थी।
       बेवफा वही निकले, जिन्हें पाने की जिद थी।।
       वो कहते थे, साथ देंगे जिंदगी भर।
       थोड़ी सी आंधी से, वो गए मगर डर।।
बीच भंवर में, हमको छोड़कर।
खुद पार हो गए, दरिया तैरकर।।
आज भी किनारे से कहते,साथ हैं तुम्हारे।
हमको भूलना मत, हम हैं तुम्हारे प्यारे।।
        अब कोई हमें बताये, हम उन्हें कैसे भूल पाएं।
        उनकी बेवफाई से कह दो, हमें ना सताये।।
        जिन्हें अपना समझ, हम बेफिक्र हो चले थे।
        वो ही राह—ए—मंजिल, डर—डर कर चले थे।।
बीच भंवर में छोड़, अब दूर जा रहे हैं।
जन्मभर के रिश्तों को, वो भूल जा रहे हैं।।
इस जन्म में मिलने की, अब रही उम्मीद नहीं।
रोज होली, रोज ​दीवाली, होती हमेशा ईद नहीं।।
        वो जश्न मना रहे थे, गीत गुनगुना रहे थे।
        हम आंसुओं से अपने, गम को मिटा रहे थे।।
        वो सज—संवर रहे थे, पिया की याद में।
        हम डूब—उतर रहे थे, गम—ए—बर्बाद में।।
वो रुठकर हमसे, बहुत दूर जा रहे थे।
हम साये में अपने,टूटते जा रहे थे।।
बिखर गई थी उम्मीदें, टूट गए थे सपने।
दूर हो गए थे, जो कभी थे अपने।।
        दिल में दबाये, यादों को उनके।
        वो शर्बती आंखें,सुरीली आवाज सुनके।।
        आंखों ही आंखों में,जिंदगी की शाम काट रहे थे।
        उनकी यादों को हम, अपने से बांट रहे थे।।
वो चंचलता से मुस्कुराना,कहकहे लगाना।
कभी पास आना, कभी दूर जाना,कभी दिल में उतर जाना।।
ठहरे हुए पानी में,जैसे कंकड़ मार जाना।
अरसे से शांत लहरों को,जैसे फिर से जगाना।।
         अब तो आंखों के सामने,उनका अक्स है बसता।
         अब तो उनके दिल में,कोई दूसरा शख्स रहता।।
         वो खुश हैं अपनी जिंदगी में,हम गम में चूर हैं।
         वो दूर हैं बहुत हमसे,हम जग में मजबूर हैं।।
राह चलते हुए तो,अब लोग हैं टोकते।
कहो कैसे हुई मुहब्बत,पूछते राह रोकते।।
मेरे दिल के जख्मों से टपकती खूनी की लाली।
उनकी मीठी बातें भी, अब लगती हैं गाली।।

—अनीश कुमार उपाध्याय

मंजिल की तलाश!















राह के मुसाफिर को मंजिल की तलाश है।
मौत भी तो जिंदगी के ही पास है।।
जिंदगी भी तो तभी तक है, जब तक सांस है।
फिर भी ऐ मन, तू क्यों उदास है।।
      तू चलता जा जिंदगी के सफर पर।
      मिलेगी हर मंजिल तूझे,पर सब्र कर।।
      हर डगर की अपनी एक लहर होती है।
      कहीं पगडंडियां, कहीं पक्की सडक होती है।।
खेत भी मिलते हैं, औ जंगल भी होते हैं।
राह—ए—सफर पर, रास्ते में कंकड भी होते हैं।।
कभी कांटे, तो कभी फूल मिलते राहों में।
कभी धूल, तो कभी शूल मिलते राहों में।।
       है हौसला अगर जो तूझमें, पूरा यकीन है।
       मंजिल—ए—सफर पर, तुझको यकीन है।।
       चलता जा सफर पर, बढाता जा कदम को।
       घटती जाएंगी दूरियां, हर कदम—कदम पर।।
राह के कंकड़ अगर, पावों को भेद जाए।    
कंकरीली—पथरीली राहों पर, लहू की रेख खींच जाए।।
यही पहचान होगी तेरी, सफलता—ए—राह की।
यहीं पूरी होगी तेरी, राह—ए—तलाश की।।
       दर्द अगर होगा तूझे, उठेगी चीत्कार जो।
       बस इतना समझ लेना, मंजिल है पास को।।
       हौसला मत हारना, मुकद्दर को मानना।
       जिंदगी हसीं है, तू बस इतना ही जानना।।
रावण का वध करने को, राम निकले थे सफर पे।
अयोध्या से चलकर, वन पहुंचे थे सफर से।।
हार जो मान ली होती, किष्किंधा पहुंच कर।
सीता की खोज होती कैसे, चढ़ाई होती लंका पर।।
        ना सुग्रीव से मित्रता होती, ना हनुमान मिलते।
        ना समुद्र पार होती सेना, ना लंका को जीतते।।
        ना रावण का वध होता, ना त्रिलोक में गान होता।
        ना भारत भूमि का, लंका तक विस्तार होता।।
राम के पूरे जीवन में, जिंदगी का राग था।
पूरा जीवन उनका, पल—पल संग्राम था।।
देव होकर जिनके, जीवन में नहीं आराम था।
फिर मानव होकर तू, क्यों डरता संग्राम से।।
        चलता जा सफर पर, बढ़ता जा डगर पर।
        मिल ही जाएगी मंजिल, इतना यकीन कर।।
        दुनिया में कोना और छोर भी होता है।
        सफलता—ए—राह में,दुनिया का जोर होता है।।
फिर भी कितनों को मंजिल मिली,राह—ए—सफर पर।
तू भी चल उसी राह पर, संभल—संभलकर।।
मंजिल तक पहुंचने से, कोई ताकत रोक नहीं सकती।
मौत तो है सिलसिला, जिंदगी नहीं थकती।।
—अनीश कुमार उपाध्याय