शनिवार, 26 अप्रैल 2014

मिल गई मंजिल हमें















निकल पड़े थे राह में, दिल में कुछ अरमान लिए।
कुछ चाह लिए, कुछ आह लिए, मन में उछाह लिए।।
बढ़े जा रहे थे राह पर, कदम ताल मिलाते हुए।
बस दिल में इक अरमान था, हम ​मंजिल को छुएं।।

मंदिर—मस्जिद,पहाड़—मैदान,तालाब—कुएं।
सब गुजरते जा रहे थे,एक—एक करते हुए।।
कहीं पक्की इमारतें,कहीं मिट्टी के घरौंदे।
कहीं गाड़ियों का रेला,कहीं जाम—झमेला।।

कहीं हार्न की पौं—पौं,कहीं हथौड़ों की ठांय—ठांय।
कहीं घराड़ी की आवाज,कहीं बजते हुए साज।।
बढ़े जा रहे थे,चले जा रहे थे,गिने जा रहे थे।
कदम—कदम पर कदम ताल मिलाते जा रहे थे।।

चलत—चलत मोहे, बीती जो रतिया।
सोचत—सोचत माहे, याद आई वो बतिया।।
कौन घड़ी हम घर से निकले,कहां थी मतिया।
भोर भई अब, काहें याद आवे गतिया।।

भोर भई और ठौर मिली,राह में इक चौर मिली।
अन्हुआइल अंखियन को जैसे,नई जिंदगी और मिली।।
रात को जो सोईं थी कलियां,पहली किरण से खिली।
कहीं फूल थे गुलाबी,नीली,कहीं लाल,कलियां पीली।।

वो बागों की लाली,वो खुरपी चलाता माली।
वो फलों से लदी डाली,वो बच्चे बजाते ताली।।
वो पूजा की थाली, वो सूरज की लाली।
वो लगन के गीत—गाली,वो जामुन काली—काली।।

वहां कुम्हारों का चाक,सुबह जगाता काग।
कहीं कूड़े की मिट्टी औ राख,कहीं मुर्गे की बाग।।
कहीं राहों में पड़ी मिट्टी,कहीं कंकड़,कहीं गिट्टी।
कहीं पकती दिखी लिट्टी,गुम थी सिट्टी—पिट्टी।।

राहों के नजारे,हमने देखते हुए गुजारे।
बादल कारे—कारे,बरस पड़े थे सारे।।
पशुओं के आगे पड़े थे चारे,नहीं दिखते तारे।
बारिश की बूंदों से,गलती मिट्टी की दीवारें।।

चले जा रहे थे,बढ़े जा रहे थे।
मन ही मन,गाने गुनगुनाते जा रहे थे।।
एक—एक कर कदम,बढ़ाते जा रहे थे।
कभी रोते,कभी हंसते जा रहे थे।।

तभी सामने दिखी, काका की फुलवारी।
बचपन में खेलने की याद ताजा हुई सारी।।
यहां कभी लगता था बाजार,बिकती तरकारी।
इस खंभे पर जलते थे, बल्ब सरकारी।।

अब यहीं मंजिल थी हमारी,आस पूरी हुई सारी।
बरसों बाद घर जो लौटे,नैनन ने अंंसुआ ढारी।।
मिल गई मंजिल मेरी, पूरे हुए अरमान थे।
बरसों बाद मिले अपने,मिट गए सारे गिले।।
—अनीश कुमार उपाध्याय

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