सोमवार, 28 अप्रैल 2014

शाम—ए—जिंदगी













जिंदगी की शाम चली आई है।
इक दिन नाम जिसका जुदाई है।।
मौत इक नाम ही सच्चाई है।
इसी बात को दुनिया दुहराई है।।

हर कोशिश के बाद राह निकल आई है।
यहां कौन बाप,कौन बेटा,कौन भाई है।।
अपनी जिंदगी में तो बस केवल तन्हाई है।
सबने उससे मिलने की कसम खाई है।।

जिसने देखे हैं,मीठे सपने अपने।
कब,किसके पूरे हुए ये सपने।।
आंख भर आई,बदन लगा तपने।
फिर भी हिम्मत कर,मंजिल बनाई हमने।।

रेत की ढेरी को महल समझा सबने।
समय की इक लहर ने तोड़े सपने।।
हमसफर कोई ना रहा,साथ छोड़ा सबने।
संकट झेला हमने,उम्मीद थी पूरे होंगे सपने।।

रात को रात,दिन को समझा दिन नहीं।
सपने अपने थे,सोचा मंजिल होगी यहीं।।
जहां दिन बीता,बीत गई रात वहीं।
सपने देखे थे,सोचा था होंगे यहीं कहीं।।

वक्त गुजरता रहा,शामें ढलतीं रहीं।
जिंदगी की गाड़ी,यूं ही घिसटती रही।।
सुख—दुख की पटरी पर,वो चलती रही।
सपनों को अपना मानना,ये गलती रही।।

पल—दो पल की थी रौशनी।
रात ही केवल अपनी रही।।
इतनी बढ़ी दुनिया,कोई अपना नहीं।
बड़े—बुजुर्ग कहते थे बातें सही।

बाजुओं पर यकीं कर,हौसलों में रख दम।
मंजिल मिलकर रहेगी,दुख हो जाएंगे कम।।
दूर होंगे सारे गम,आंखें होंगी नम।
सपने होंगे तेरे पूरे,खुशियां होंगी हरदम।।

खुश रहने वालों की शामें हसीं होती।
उल्लासित मन जागता,दुनिया सोती।।
जिंदगी में हार—जीत,होती नहीं पनौती।
खुशियां किसी एक की,होती नहीं बपौती।।

कर्ज का दुनिया में रैन बसेरा।
शरीर छूटेगा,ना रहेगा तेरा—मेरा।।
खाक होगा तन,श्मासान में उड़ेगी राख।
कुछ दिन गम,फिर रोएगी ना आंख।।

वहीं है मंजिल,तेरे इस विशाल तन का।
वक्त रहते जप ले तू,राम नाम का मनका।।
ऐसा ना किया तो न घर होगा ना घाट का।
जिंदगी की शाम है,इसे बना मनभावन सा।।

—अनीश कुमार उपाध्याय

मन की जीत











जिंदगी का ऐ मन ऐतबार कर।
बड़ी हसीं है ये दुनिया,ना इंकार कर।।
कोई जंग जीती नहीं जाती,हार मानकर।
फिर शुरू कर कोशिश,जीत जानकर।।

पा लेगा तू मंजिल,ये ऐतबार कर।
छोड़ दोगे ये दुनिया,मान ले अगर।।
दिल में होगा गम,आंसू बहेंगे झर—झर।
उलझन है तो हल भी होगा,तू यकीं कर।।

हौसलों के दम पर,दुनिया जाती जीती।
बिना दिल में डरके,होती नहीं प्रीती।।
यही बात बतलाती,दुनिया की नीति।
जीते के साथ रहने की,रही सदा रीति।।

सारे फसाने छोड़कर,हकीकत पर यकीं कर।
मिल जाएगी मंजिल,कोशिश जो करे अगर।।
वो जिंदगी ही क्या,​जो जिये मर—मर।
पाओगे जो मंजिल,हो जाओगे अमर।।

राह की बाधाओं को,अब तू पार कर।
मुसीबत जो लाख आए,चलता जा निडर।।
आंधी—तूफान भी,हट जाएंगे घबराकर।
जीत मिलेगी तुझको,तू इसका यकीं कर।।

डर—डरकर किसी को ​जीत नहीं मिलती।
वक्त से पहले कभी कली नहीं खिलती।।
उगते सूरज की किरणे,अंधेरे को चीरती।
लाख मुसीबत बाद ही मंजिल है मिलती।।

मन के हारे हार है,मन के जीते जीत।
यही सदा रही है,चारो युग की रीत।।
दुनिया के सारे कवियों ने गाए यही गीत।
अब उसको बिसरा,कहानी गई वो बीत।।

जीते के पीछे दुनिया,हारे का सहारा कोई नहीं।
अपने दम पर खड़ा हो जा,जीत मिलेगी कहीं ना कहीं।।
हर हार की वजहों का,तैयार कर खाता—बही।
दांतों में जहर रखकर,छिपकर बैठा रहता अहि।।

वक्त का इंतजार कर,तू लौटेगा जीतकर।
मन को तू मजबूत और इरादे फौलाद कर।।
हिम्मत अबकी फिर बांध,सांसों को खींचकर।
कोई तुझे हरा नहीं सकता,लौटेगा तू जीतकर।।

मंजिल पाने की मन में तू जिद कर।
कदम—कदम बढ़ाता जा,चलता जा राह पर।।
लक्ष्य पाने के लिए,योगी घूमे नगर—नगर।
फिर तू कैसे लौट सकता,भला निराश होकर।।

जीत मिलती उसी को,जिसके सपनों में जान होती।
मुर्दों की क्या भला कहीं पहचान होती।।
बागों में फूल खिलने से पहले,कलियां हैं होती।
मर्द ही आंसू पीते हैं,औरतें हैं रोतीं।।

—अनीश कुमार उपाध्याय

मतवाली टोली












चल पड़ी मतवालों की टोली।
अब चले तोप,चाहें चले गोली।।
रंग जाए,चाहें खून से चोली।
खेलेंगे अब खून की होली।।

बहुत कर लिया हमने प्यार।
अब ना सहेंगे तेरी ललकार।।
हमने दिए फूल,तूने दिया अंगार।
एक के बदले,अब मारेंगे चार।।

पड़ोसी धर्म भी खूब निभाया।
शांति—सद्भाव तुझे ना भाया।।
सीमा पार तू चढ़कर आया।
काश्मीर को अपना बताया।।

देश में तूने आतंकवाद फैलाया।
अपनों को ही दुश्मन बनाया।।
भाई—भाई को खूब लड़वाया।
हिंदू—मुस्लिम को भिड़ाया।।

निर्दोषों का लहू बहाया।
धर्मस्थल पर आग लगवाया।।
अपनों को बम से उड़ाया।
तब तुझे मुस्लिम नजर ना आया।।

अब मुस्लिम को बताए भाई।
मारे अपनों को केवल कसाई।।
अब जान लो तुम सच्चाई।
नई एकता भारत में आई।।

अब मतवाले तुझे बताएं।
बूंद—बूंद लहू की कीमत चुकाएं।।
देश की एकता उनको भाए।
रक्षा देश की करने आए।।

हिंदू आए,मुस्लिम आए।
सिख—ईसाई वो भी आए।।
भारत के हैं,पाक ना भाए।
देश की एकता की गाथा गाएं।।

देश निराला,सैनिक मतवाला।
जाति—धर्म से दूर रहने वाला।।
कोई गोरा,तो कोई है काला।
भारतभूमि का है रखवाला।।

शीश काट तेरा वो लाएगा।
भारत मां का कर्ज चुकाएगा।।
तुझसे अपना बदला पाएगा।
भारत मां के गीत को गाएगा।।

भारत देश की अजब कहानी।
बूढ़ों में भी आती जवानी।।
वीर कुंवर सिंह थे अभिमानी।
उनकी कहानी,नहीं तुझे बतानी।।

—अनीश कुमार उपाध्याय

बागी धरती













बागी धरती करे पुकार।
नहीं सहेंगे अब भ्रष्टाचार।।
बहुत सह चुके तेरा अत्याचार।
अब होगा आर या होगा पार।।

बागी धरती दिखाएगी तेवर।
सोना छोड़ हथियार बनेंगे जेवर।।
खून खौलेगा,फड़केगा बाजू।
कोई एक रहेगा, मैं या तूं।।

बागी धरती की यही पहचान।
जान रहे ना रहे,रहेगी शान।।
तिरंगे के लिए,सबकुछ कुर्बान।
गूंजेगा बस हिंदुस्तान—हिंदुस्तान।।

बागी धरती देश की शान।
मिटाये दुश्मनों के निशान।।
भारत मां के गाए गान।
चहुंओर हिंदुस्तान—हिंदुस्तान।।

बागी धरती,खूनी लाल।
दुश्मनों की खींच ले खाल।।
टूट पड़े तो बन जाए काल।
समझ ना पाए दुश्मन चाल।।

बागी धरती करे कमाल।
हर घर से निकले इक लाल।।
चमकती तलवार,लेकर ढाल।
दुश्मनों पर बन जाए काल।।

बागी धरती जवान महान।
हर घर में सेना का जवान।।
देशभर में होता गुणगान।
जय हिंदुस्तान—हिंदुस्तान।।

बागी धरती धरा है पावन।
चारों वेद में भरा बखान।।
भृगु मुनि और दर्दर महान।
जितना तुम कर लो गुणगान।।

बागी धरती की पहचान।
गंगा,सरयू,टोंस सीवान।।
रक्षा करते वीर जवान।
जय हिंदुस्तान—हिंदुस्तान।।

बागी धरती ने भरी हुंकार।
मिटकर रहेगा भ्रष्टाचार।।
ईमानदारी की जय—जयकार।
जली ज्योति वो बनी अंगार।।

बागी धरती की जो राह में आया।
समझो उसने जीवन गंवाया।।
दुश्मनों का नामोंनिशां मिटाया।
बलिया बागी नाम कहलाया।।

—अनीश कुमार उपाध्याय

...तुझे मंजिल मिलेगी













जा मुसाफिर जा,तुझे मंजिल मिलेगी।
तेरे पीछे सारी दुनिया,ये जी लेगी।।
बस बहुत हुआ,अब ना कर दिल्लगी।
सूरज उगेगा,चांद निकलेगा,कली खिलेगी।।

जा मुसाफिर जा,तुझे मंजिल मिलेगी।
दुनिया इक फसाना है,तू इक सच्चाई।।
सच की राह पर चलने वालों ने मंजिल पाई।
हर धर्म ग्रंथों ने,यही बात बतलाई।।

जा मुसाफिर जा,तुझे मंजिल मिलेगी।
सच की राह में,लाख मुसीबतें आएंगी।।
तेरे हौसलों के आगे,वो शीश झुकाएंगी।
जीत होगी और दुनिया तेरे गीत गाएगी।।

जा मुसाफिर जा,तुझे मंजिल मिलेगी।
कदमों पर यकीं,हौसले फौलाद कर।।
तेरे राह में रोड़े भी मिले लाख अगर।
दिल को मजबूत,लक्ष्य पर रहे नजर।।

जा मुसाफिर जा,तुझे मंजिल मिलेगी।
हरिश्चंद्र भी सत्य की राह पर थे चले।।
खुद हुए नीलाम,पत्नी—बेटे थे बिके।
बिना कर वसूली दिए,रोहित ना जले।।

अंत में उन्हें तब मंजिल मिली।
सच की राहों में कांटे लाख होते।।
फरेब की राहें सपाट हैं होते।
लेकिन फरेबी को मंजिल नहीं मिलती।।

जा मुसाफिर जा,तुझे मंजिल मिलेगी।
सत्य का अगर तू,अंत तक पकड़े रहा दामन।।
सच कहूं कहता है मेरा ये मन।
मंजिल मिलेगी,तू भोगेगा नंदन वन।।

जा मुसाफिर जा,तुझे मंजिल मिलेगी।
बुराई करने वाले,अक्सर फलते—फूलते।।
लेकिन ये भी है हकीकत,वो मंजिल नहीं पाते।
खूब तेजी से जो भागते,बीच मंजिल से लौटते।।

जा मुसाफिर जा,तुझे मंजिल मिलेगी।
अपने हौसलों पर कर यकीन अगर।।
मंजिल को पाते हैं केवल वीर नर।
सत्य की राह पर चलने की तू कोशिश कर।

जा मुसाफिर जा,तुझे मंजिल मिलेगी।
हौसलों के बूते केवल मंजिल जाती जीती।।
तीनों युगों से चली आ रही यही रीती।
राजनीति में जैसे बिनु भय होय न प्रीति।।

जा मुसाफिर जा,तुझे मंजिल मिलेगी।
अगर तू ठान ले,तो ​तेरे दिल की कली खिलेगी।।
तू मनायेगा जीत का जश्न और दुनिया जलेगी।
तू पाएगा मंजिल,दुनिया हाथ मलेगी।।

—अनीश कुमार उपाध्याय

रविवार, 27 अप्रैल 2014

बंजारा मन...











मन बंजारा, वक्त का मारा।
तुझे पुकारे,आजा—आजा।।
मन गति,दीया की जलती बाती।
हवा का झोंका,लौ को झुकाती।।

मन बंजारा, हवा के जैसा।
तेरी गति,दीया की बाती।।
हवा वक्त का है इक झोंका।
संभल जा वरना,खाएगा धोखा।।

मन बंजारा,पानी जैसा।
दुनिया उसकी,जिसका पैसा।।
ये तन तेरा,बुलबुले जैसा।
हुआ ना किसी,तो तेरा कैसा!

मन बंजारा,आकाश जैसा।
इक चांद है,नगण्य तारों में।।
काली अमावस्या,गुल हुआ चांद।
जीवन वैसे,दिन—रात है जैसे।।

मन बंजारा,धरती जैसा।
जैसी मेहनत,काटो वैसा।।
भाई—भाई में आग लगाए।
खुशियों को सारी,ये जलाए।।

मन बंजारा,भंवरा जैसा।
फूल चूसकर,रस उड़ जाए।।
फूल बेचारा,क्या कर पाए।
फिर भी हंसकर,जीवन बिताए।

मन बंजारा,शीशे जैसा।
सामने जो आए,अक्स वैसा।।
लाख सुंदरता,तू चढ़ाए।
वक्त उसे भी मिट्टी बनाए।।

मन बंजारा,रास्ते जैसा।
उस पर राही चलता जाए।।
मंजिल आए,रास्ता छूट जाए।
यहीं मुसाफिर पूरा थक जाए।।

मन बंजारा,पेड़ जैसा।
पंथी आए,छाया पाए।।
गरीब घर का,चूल्हा जलवाए।
श्मसान में देह को राख बनाए।।

मन बंजारा,लोहे जैसा।
शत्रु वार को खुद झेल जाए।।
थोड़ा चूके तो मौत लाए।
कभी ढाल,भाला कहलाए।।

मन बंजारा, वक्त को समझे।
मन की गति,कोई समझ ना पाए।।
जो समझे वो ज्ञानी कहलाए।
भवसागर से पार हो जाए।।

—अनीश कुमार उपाध्याय

बढ़े चलो—बढ़े चलो










आज वक्त है पुकारता।
हुं—हुं कर हुंकारता।।
कर्म पथ पर बढ़े चलो तुम।
कभी बाधाओं से न हटो तुम।।

बढ़े चलो—बढ़े चलो।
वक्त की आवाज सुन चले चलो।।
कर्म पथ से डिगो नहीं।
कदम—कदम बढ़ाते चलो।।

वक्त की पुकार सुनो।
जीत की गिनती गिनो।।
बढ़े चलो—बढ़े चलो।
कर्म पथ पर बढ़े चलो।।

दुश्मनों की छाती दलो।
गीत फतह के गाते चलो।।
बढ़े चलो—बढ़े चलो।
तुम कहीं रुको नहीं।।

तुम कभी झुको नहीं।
जीतना है मंजिल तुम्हें।।
बढ़े चलो—बढ़े चलो।
शत्रुदल की छाती पर।।

चढ़े चलो—चढ़े चलो।
बढ़े चलो—बढ़े चलो।।
मुसीबतें जो राह की।
कचलते चलो,कुचलते चलो।।

दुश्मनों का सीना चीर दो।
बहुत धर लिए धीर तो।।
अब तुम उसको पीर दो।
वक्त की पुकार सुनो।।

बढ़े चलो—बढ़े चलो।
शेर की तरह दहाड़ते चलो।।
पर्वतों को कर दो खंड—खंड।
नदियों की दिशा मोड़ दो।।

चढ़े चलो—बढ़े चलो।
तुम्हें नहीं है रुकना।।
दुश्मन के आगे झुकना।
शत्रु का मान मर्दन करो।

बढ़े चलो—बढ़े चलो।
अब सीमा पार चले चलो।।
दुश्मन को भी पता चले।
अब वो फिर खता न करे।।

चढ़े चलो—बढ़े चलो।
फतह हासिल करके मानो।।
जीत तुम निश्चित जानो।
शत्रु वेधो बानो—बानो।।

—अनीश कुमार उपाध्याय